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संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
सांस्कृतिक सापेक्ष वाद पर टिप्पणी
- सांस्कृतिक सापेक्षवाद (CULTURE RELATIVIAM) 19वीं सदी तक मानव शास्त्रियों ने किसी एक सांस्कृतिक को दूसरी संस्कृत के संदर्भ में विश्लेषण करने का प्रयास किया जिससे संस्कृत का नृजाति केंद्रीय विचारधारा कहा जाता है|वर्तमान समय में मानव शास्त्र के क्षेत्र में विद्वानों की कोशिश या हो रही है कि किसी संस्कृत विशेष को उसी संस्कृत के संदर्भ में समझा जाए ना की किसी अन्य संस्कृति के संदर्भ में| जब हम किसी संस्कृत का उसी संस्कृत के के लोगों के संदर्भ में वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करते हैं तो उसे सांस्कृतिक सापेक्ष बाद कहा जाता है सांस्कृतिक सापेक्ष बाद के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
- कि यह एक संस्कृत दूसरी संस्कृत की तुलना में कितनी अच्छी है या खराब है क्योंकि किसी संस्कृति विशेष के अंतर्गत कोई चीज अच्छी या बुरी हो सकती है दो संस्कृतियों के बीच तुलना इसलिए नहीं होना चाहिए कि हर एक संस्कृत के अपने अपने आदर्शों होते हैं भारत में अगर किसी नो यू टी की विवाह की पूर्व संतानोत्पत्ति हो तो उसकी शादी से भारी परेशानी होती है, चौकी समाज इसे अच्छा नहीं मानता पर इसके ठीक विपरीत न्यू गिनी में अगर किसी कुंवारी लड़की को संतान उत्पत्ति होती है तो उसके विवाह की संभावना काफी बढ़ जाती है संस्कृति सफेद छुआ दे कि केंद्र में मूल विचार यह है कि कोई चीज सही या गलत उस संस्कृत की पृष्ठभूमि में ही हो सकती है जो एक संस्कृत में सही है वह दूसरे संस्कृत के अंतर्गत गलत भी हो सकती है| संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
परसंस्कृत- ग्रहण पर टिप्पणी
(Accultration) जब एक जब एक संस्कृति से संबंधित तत्व किसी दूसरे समूह अथवा क्षेत्र में फैल जाते हैं तो उसे हम प्रसार (diffusion) कहते हैं, लेकिन जब किसी संस्कृति के प्रभाव से एक अन्य सांस्कृतिक समूह की संपूर्ण जीवन विधि ही बदलने लगती है तब इस प्रक्रिया को पर संस्कृति – ग्रहण की प्रक्रिया कहा जाता है|मजूमदार के शब्दों में “जब संस्कृत के कुछ तत्व अथवा प्रतिमान दूसरी संस्कृतियों मैं फनी लगते हैं तब इसका तात्पर्य केवल सांस्कृतिक प्रसार से होता है लेकिन जब किसी दूसरी संस्कृति के प्रभाव से हम समूह का संपूर्ण जीवन परिवर्तन की प्रतिक्रिया में आ जाते हैं
तब इस स्थिति को पर इस संस्कृति ग्रहण कहते हैं|”पर संस्कृति ग्रहण पर अवधारणा सर्वप्रथम हर्स को विट्रान सेट फील्ड तथा लिटन ने प्रस्तुत किया|इन विद्वानों के अनुसार “परसंस्कृत ग्रहण “का अर्थ एक ऐसे दशा से है जो विभिन्न संस्कृति वाले समूह द्वारा एक दूसरे के निकट और निरंतर संपर्क में आने के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होते हैं,तथा जिसके फलस्वरूप उन समूहों में से किसी एक या दोनों के मूल संस्कृति प्रतिमाओं में परिवर्तन हो जाता है इससे स्पष्ट होता है संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
कि पर संस्कृत ग्रहण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें दो विभिन्न समूह एक दूसरे के संस्कृत तत्वों को अपनी इच्छा या राजनीतिक के दबाव के कारण ग्रहण करने लगते हैं| इस दृष्टि से या प्रतिक्रिया संस्कृत के विकास अथवा संवर्धन का एक महत्वपूर्ण कारण है| संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
संस्कृत क्षेत्र पर टिप्पणी
संस्कृत क्षेत्र:- प्रत्येक संस्कृत का एकसीमित भौगोलिक क्षेत्र होता है जब किसी भौगोलिक क्षेत्र की सामाजिक विशेषताएं समान होती है, तो उससे संस्कृत क्षेत्र कहा जाता है|1956 एवं 1960 मैं भारत के कई राजू के पुनर्गठन में भाषा की समानता ध्यान में रखा गया है जिसका मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक क्षेत्र के आधार पर नए राज्यों की स्थापना करनी थी गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, केरल ,कर्नाटक एवं तमिलनाडु केवल भाषा के आधार पर ही नहीं बल्कि अलग संस्कृति विशेषताओं के कारण भी अलग हैं | संस्कृति समाजशास्त्र नोट्स
दक्षिण भारत में द्रविडो को क्षेत्र भाषा की दृष्टि से उत्तरी भारत से अलग है इस प्रकार एक विशाल संस्कृति क्षेत्र में आंतरिक सुविधाएं भी होती है कभी-कभी एक ही राज्य की सीमा के अंतर्गत बहुत सारे संस्कृति क्षेत्र होते हैं इसलिए तो हम लोग नागरिया संस्कृति, ग्रामीण संस्कृति, जनजाति संस्कृति जैसे अवधारणाओं की बात करते हैं|अच्छा लगा हो तो कमेंट जरूर करें धन्यवाद
- अधिक जानकारी के लिए What is Santhal Movement लिंक पर किलिक कीजिए।
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